कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग तीन (III)}
(अरुण कुमार तिवारी)
(अरुण कुमार तिवारी)
1. उसकी आदत है चौखट अपनी नीची रखना।
वो जानता ही नहीं गर्दन झुकाके चलना हमें नहीं आता है।।
2. कुछ रिश्ते बनाये न गए,कुछ रिश्ते निभाए न गए।
हम पहले अकेले थे, आज तनहा हो गए।।
3. कुछ लोग आयेंगे हंसाने,कुछ लोग आयेंगे रुलाने,और दिल में बस जायेंगे।
मैं सच कहने आया हूँ,सच कह के चला जाऊंगा।।
4. कुछ नहीं बदला शहर में।
न मेरी बेबसी न तेरी लाचारी।।
5. रंग चढ़ता नहीं कोई और मुझपे।
केसरिया इस कदर चढ़ गया है मुझपे।।
6. जिनकी आँखों से निकल ही नहीं पाता गुजरात के मुसलमानों का दर्द।
इतिहास के पन्नो से अक्सर बेखबर ही रहते हैं।।
7. गुनाहगार के आंसू गिरे और परेशां हो गए।
धयान से देखिये जिनपे गुनाह हुए उनके आंसूं आज भी नही सूखे हैं।।
8. उसके शहर से मैं फिर अजनबी बन कर निकला।
उसका शहर मेरी पहचान छीन लेता है।।
9. मैं तेरा ही अक्श हूँ ,तू मेरा ही साया है।
तूने कभी दिल से देखा ही नहीं,मैं दिल से मजबूर हूँ।।
10. तेरा मेरा रिश्ता पुराना है, तूने कभी समझा ही नहीं,तूने कभी जाना ही नहीं।
तू कंघी बनाता है मै आइना बनाता हूँ।।
11. ये शहर निगल जाता है मासूम जिंदगी।
मेरी बच्ची इस शहर से न करना बंदगी।।
12. हर तरफ बस बर्बादी का मंज़र है।
इस शहर में हर दर्द पे राजनीती होती है।।
13. दर्द अपनों ने दिए किसी को बताऊँ कैसे।
पर ये तो दर्द है इसको छुपाऊँ तो छुपाऊँ भी कैसे।।
14. इस शहर को आदत सी पड़ गई है हादसों की।
जब तक कोई हादसा न हो ये शहर वीरान लगता है।।
15. उसकि दुआओं का कैसे न असर होता।
वो जब भी देता है दिलसे दुआ देता है।।
16. दोस्त तोड़ ले अपने पेंड़ों के फल।
मेरे घर के शीशे भी अब टूटने लगे हैं।।
17. कुछ तो खास बात थी मेरे कातिल में।
वो जिससे भी मिला वो उसका बनता चला गया।।
18. पहुँच गया है तेरी देहलीज़ पर तेरे बुरे कर्मों का साया भी।
पता नहीं क्यूँ अभी भी शर्म तेरे घर से कोसों दूर रहती है।।
19. तुम अपनी तारीफों के पुल न बनवाओ।
ये शहरे हिंदुस्तान है यहाँ टूटते पुल हमने बहुत देखे हैं।।
20. ये रंगे वतन है,जब ये चढ़ जाता है।
फिर कोई दूसरा रंग चढ़ता ही नहीं।।
21. अपने गुनाहों का हिसाब क्या देता ,सवाल सब गलत थे,जो वो पूंछ रहा था।
मैं कोशिस करता भी तो सही जवाब क्या देता।।
22. देख कर कुछ तस्वीरे।
आँख भी रो देती है,दिल भी रो देता है।।
23. तुझको तुझ से मिला दिया मैंने।
कोई गुनाह किया जो खुद को मिटा दिया मैंने।।
24. तू चाह के भी शर्मिंदा उसे नहीं कर पायेगा।
वो शर्म बेच के इस मुकाम पे आया है।।
25. जब से मकान एक कमरे से दस कमरे का कर लिया है।
घर एक कमरे में सिमट के रह गया है यारों।।
धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी
Ati sundar,
ReplyDeleteNice Creativity.... Great One......
ReplyDelete"रंग चढ़ता नहीं कोई और मुझपे।
केसरिया इस कदर चढ़ गया है मुझपे।।"
Arun Ji, I have become your Fan,My heartiest greetings.
=>Vijay Kumar Singh
बहुत सुंदर लेखन है बंधु। मेरी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteAmazing Jiju
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