कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग त्रयो दश(XIII)}
21. वो गुम्बदों मीनारों में खोज रहा था शहर कि पहचान।
मैं वो धागा तलाश रहा था जिसने ये शहर बाँध रखा है।।
1 . पेंड दुआ मांग रहा था,कुछ टहनिओं के सूख जाने कि।
जब सर्दी में एक लाचार माँ फटी साडी से बच्चा ढांक रही थी।।
2 . ये शहर भी अजीब है यारों,कुछ अजीब ही ढंग है इसके ।
सच को चुप रहने कि आदत है, झूट चिल्ला के अपना पता बताता है।।
3 . तेरा ये शहर फिर कैंचिआं हाँथ में लिए अफ़सोस करेगा।
हमने परों को छोड़ हौसलों से उड़ना सीख लिया है।।
4 . वो बार बार पूँछ रहा था ज़िंदगी का ठिकाना।
मैंने शमशान कि ओर जाने का रास्ता दिखा दिया।।
5 . यूँ तो इतिहास खुद को दोहराता है।
समझदार वो जो इतिहास कि गलतियां नहीं दोहराता है।।
6 . मैं तेरे वतन का हूँ,तुझ सा नहीं हूँ मैं।
तेरे वतन कि जमीं मुझे आज भी बेटा ही कहती है।।
7 . पंछी भी पहचानते हैं छत्त शिकारी की ।
सियासतदानों कि छत पे भूँखा कबूतर अब नहीं जाता।।
8 . लगा दे शहर के बाकि बचे सब इलज़ाम भी मेरे माथे पर।
बस इस शहर की मासूमियत को और न बदनाम कर।।
9 . मैं लड़ रहा था जहाँ से के तू मुझ में बसा है।
तू लड़ रहा था जहाँ से के तू मेरे आस पास है।।
10. जवानी गुम हुई जाती है खुद कि मसतिओं में।
बुढापा फिर मशाले रौशनी लिए तख्ते फांसी चूमने चला है।।
11. समझौती अब इतने भी नहीं करता।
कि आईना देखूं तो खुद को भी पहचान न सकूँ।।
12. आज जो लगा रहे हो मेरे सर कि कीमत,कल जब झुकाओगे।
अपना सर मेरे क़दमों पे,गले लगाऊंगा सर तुम्हारा झुकने नहीं दूंगा ऐ दोस्त।।
13. बस गया है बगावती खून उसकी नस नस में।
जब झूठ नही मिलता सच से बगावत कर लेता है वो यारों।।
14. सच लिख लिख के थक जाता हूँ,पर सत्य व्यर्थ नहीं जायेगा।
ये बात और है किताबे झूठ के खरीदार शहर में ज्यादा हैं।।
15. मैं लिख लिख के बागी हो गया,वो पढ़ पढ़ के कायर हो गया।
या तो मैं दास्तान नहीं लिख पाया,या फिर वो आज भी अफसानों में जीता है।।
16. कच्ची मिटटी से बनाते है शहीदों कि मज़ारे सियासतदां।
आसान होता है गिरा के उसको रास्ता बनाके दुस्मनों कि बाँहों में जाने का।।
17. सच बेचना है तो मैखाने में आजा पगले।
मस्जिद में तो आजकल खुदा बिकता है।।
18. मीर बाक़ी को लिए अपने ज़ेहन में।
घूमते देखें हैं हमने मीर ज़ाफ़र सियासत के शहर में।।
19. वो तोड़ रहा था मंदिर,मस्ज़िद बनाने के वास्ते।
हरकते देख कर उसकी,खुदा रो पड़ा राम के चरणो में बैठ कर।।
20. क्यूँ न हो हुक्मरानों को सर कलम करने कि आदत।
शहर जब उन से मिलता है,झुका के गर्दन ही मिलता है।।
धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी