जब भूल जाना फितरत हो जाये ज़माने कि।
याद दिलाना कर्त्तव्य हो जाता है कलम का मेरी।।
याद दिलाना कर्त्तव्य हो जाता है कलम का मेरी।।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय
जन्म 25 सितंबर, 1916,मथुरा
स्वर्गवास:11 फरवरी, 1968,मुगलसराय रेलवे यार्ड
If I had two Deendayals, I could transform the political face of India : Dr. Syama Prasad Mookerjee
जो व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है उसने बचपन से प्रतिभा का अर्थ समझा होता है और उनके बचपन के कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो उन्हें प्रतिभाशाली बना देते हैं. उनमें से एक हैं दीनदयाल उपाध्याय जिन्होंने अपने बचपन से ही जिन्दगी के महत्व को समझा और अपनी जिन्दगी में समय बर्बाद करने की अपेक्षा समाज के लिए नेक कार्य करने में समय व्यतीत किया.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के मथुरा ज़िले के छोटे से गांव जिसका नाम “नगला चंद्रभान” था, में हुआ था. पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन घनी परेशानियों के बीच बीता. दीनदयाल के पिता का नाम ‘भगवती प्रसाद उपाध्याय’ था. इनकी माता का नाम ‘रामप्यारी’ था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. दीनदयाल जी के पिता रेलवे में काम करते थे लेकिन जब बालक दीनदयाल सिर्फ तीन साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया और फिर बाद में 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गए.
दीनदयाल उपाध्याय जी ने माता-पिता की मृत्यु के बाद भी अपनी जिन्दगी से मुंह नहीं फेरा और हंसते हुए अपनी जिन्दगी में संघर्ष करते रहे. दीनदयाल उपाध्याय जी को पढ़ाई का शौक बचपन से ही था इसलिए उन्होंने तमाम बातों की चिंता किए बिना अपनी पढ़ाई पूरी की. सन 1937 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी. इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया.
एस.डी. कॉलेज, कानपुर से उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई पूरी की और यहीं उनकी मुलाकात श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुई जिनसे मिलने के बाद उनमें राष्ट्र की सेवा करने का ख्याल आया. सन 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की लेकिन कुछ कारणों से वह एम.ए. की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए.हालांकि पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी न करने का निश्चय किया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए काम करना शुरू कर दिया. संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम जिन्दगी साहित्य से जुड़े रहे. उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. केवल एक बैठक में ही उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था. दीनदयाल ने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की. बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’(साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत की.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय को 1953 में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर यूपी का सचिव बनाया गया. पं. दीनदयाल को अधिकांश लोग उनकी समाज सेवा के लिए याद करते हैं. दीनदयाल जी ने अपना सारा जीवन संघ को अर्पित कर दिया था. पं. दीनदयाल जी की कुशल संगठन क्षमता के लिए डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता.
पं. दीनदयाल की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली. इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था. 11 फरवरी, 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनकी लाश मिलने से सारे देश में शौक की लहर दौड़ गई थी. उनकी इस तरह हुई हत्या को कई लोगों ने भारत के सबसे बुरे कांडों में से एक माना. पर सच तो यह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग समाज के लिए सदैव अमर रहते हैं.
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के वचन
1:ये ज़रूरी है कि हम ‘ हमारी राष्ट्रीय पहचान ’ के बारे में सोचें जिसके बिना ‘स्वतंत्रता ’ का कोई अर्थ नहीं है .
2:भारत जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उसका मूल कारण इसकी ‘राष्ट्रीय पहचान ’ की उपेक्षा है .
3:अवसरवाद ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला कर रख दिया है .
4:किसी सिद्धांत को ना मानने वाले अवसरवादी हमारे देश की राजनीति नियंत्रित करते हैं .
5:हम लोगों ने अंग्रेजी वस्तुओं का विरोध करने में तब गर्व महसूस किया था जब वे (अंग्रेज ) हम पर शाशन करते थे , पर हैरत की बात है , अब जब अंग्रेज जा चुके हैं , पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन चुका है .
7:पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन दो अलग -अलग चीजें हैं. जहाँ पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है ; और यदि हमें आगे बढ़ना है तो इसे हमारे द्वारा अवश्य अपनाया जाना चाहिए , वहीँ पश्चिमी जीवन और मूल्यों के बारे में ये बात सत्य नहीं है .
8:पिछले एक हज़ार वर्षों में हमने जो भी आत्मसात किया चाहे वो हम पर थोपा गया या हमने स्वेच्छा से अपनाया – उसे अब छोड़ा नहीं जा सकता .
9:मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है .
10: स्वतंत्रता तभी सार्थक हो सकती है यदि वो हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए.
11:भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत समग्र रूप में देखती है .
12: वहां जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा इसके पीछे की एकता को खोजने का प्रयास किया है.
13:मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और खून का खून हैं .
14:शक्ति हमारे असंयत व्यवहार में नहीं बल्कि संयत कारवाई में निहित है.
15:अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है .
16:मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं – एक तरफ क्रोध और लोभ तो दूसरी तरफ प्रेम और त्याग .
17: नैतिकता के सिद्धांत किसी के द्वारा बनाये नहीं जाते , बल्कि खोजे जाते हैं .
18:अंग्रेजी शब्द रिलिजन, धर्म के लिए सही शब्द नहीं है .
19:धर्म एक बहुत व्यापक विचार है जो समाज को बनाये रखने के सभी पहलुओं से सम्बंधित है .
20:धर्म के मूल सिद्धांत शाश्वत और सार्वभौमिक हैं. हालांकि , उनका क्रियान्वन समय , स्थान और परिस्थितियों के अनुसार अलग -अलग हो सकता है .
21:एक बीज , जड़ों , तानों , शाखाओं , पत्तियों , फूलों और फलों के रूप में अभिवयक्त होता है . इन सभी के अलग -अलग रूप , रंग और गुण होते हैं . फिर भी हम बीज के माध्यम से उनकी एकता के सम्बन्ध को पहचानते हैं .
22:भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म कहा जाता है – जीवन जीने की विधि.
23:जब स्वाभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है , तब हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं .
24:यहाँ भारत में , हमने अपने समक्ष मानव के समग्र विकास के लिए शरीर , मन , बुद्धि और आत्मा की आवश्यकताओं की पूर्ती करने की चार -स्तरीय जिम्मेदारियों का आदर्श रखा है .
25: धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ( चार पुरुषार्थ ) की लालसा मनुष्यों में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इनकी संत्सुष्टि भारतीय संस्कृति का सार हैं .
26: जब राज्य सभी शक्तियों , दोनों राजनीतिक और आर्थिक का अधिग्रहण कर लेता है , तो इसका परिणाम धर्म का पतन होता है .
27: एक देश लोगों का समूह है जो ‘एक लक्ष्य ’, ‘एक आदर्श ’, एक मिशन ‘ के साथ जीते हैं , और धरती के एक टुकड़े को मात्रभूमि के रूप में देखते हैं . यदि आदर्श या मात्रभूमि – इन दोनों में से एक भी नहीं है तो देश का कोई अस्तित्व नहीं है .
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