कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग द्वादशः (XX)}
21. अपनी मर्ज़ी से कोई "उसके" धाम पर नहीं जाता।
पेट कि भूंख ले जाती है,वरना अपनी ख़ुशी से खेल कि उम्र में बच्चा काम पर नही जाता।।
1 . बच्चा जब कभी,पलकों के बाल मुठ्ठी में या तितलिओं के पंख हाँथ में रख कुछ मांगता है।
चित्रगुप्त किताब से अपनी कुछ लफ्ज़ लिखता कुछ मिटाता है।।
2 . दीवानों कि महफ़िल में आया है।
बदनाम शायर ही होगा।।
3 . टेढ़ी मेढ़ी चालों का खेल तूने कर लिया,कर इंतज़ार हिचकी का।
दो चार टेढ़ी मेढ़ी सांस,एक अदद हिचकी और धरा रह जाता है सब यहाँ का यहीं।।
4 . न जाती न भेद मानता,न करनी न लेख मानता।
ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र सब कर्म प्रधान दुनिया में,यही सनातनी सत्य जानता।।
5 . सपनो में भारत,सपनो का भारत, रण भेरे सुन ।
दे भुजाओ को कुछ काम,वरना बस रह जायेगा सपनो में ही भारत।।
6 . मानता हूँ मैं तेरी बात,जब भी दोस्ती कि जाये दुश्मनों कि सलाह ली जाये।
तू भी मान जां बात मेरी जब भी दुश्मनी कि जाये दोस्तों कि सलाह ली जाये।।
7 . महंत हज़ारों शागिर्द होते हुए भी,अपना महल खोने से डरता है।
सीख ले मुझ फ़कीर से जीने का सलीका,जो लोगो के दिल में रहता है,बेघर नहीं होता है।।
8 . दौरा इश्क का है इसमें क्या कर लेगा हकीम।
मुनादी करवा दो चौक पे इकठ्ठा हो पत्थरबाजों का हूजूम।।
9 . बहुत देर जब ठहरता है पानी,काई जम ही जाती है।
रास्ता मुश्किल हो फिरभी घबराना नहीं,
चलते रहने से लकीर हाँथ कि पांव कि बेवाइओ में बदल जाती है।।
10. पढ़ी लिखी दिल्ली का हाल हमने देख लिया,पढ़ने ही से तरक्की नहीं होती है।
मिले जो वक्त किसान के हाँथ के छाले चूम लेना,
जिसकी वजह से देश को दो वक्त कि रोटी मिलती है।।
11. अपनी आँखों कि लाली को क्रोध का जामा मत पहना।
मै ही तुझे कल रात मैखाने से उठा कर लाया था।।
12. तू कातिल का हाँथ थामता है मै शहीद को कांधा देता हूँ।
भूलसे अब मेरी गली न आना,मैं गददारों कि गर्दन उतार देता हूँ।।
13. जापानी तेल से नही,जिगर से आती है।
मर्दानगी जब भी आती है,हिम्मत से आती है।।
14. सियासत हरम है जानता हूँ सब नंगे हो जाते हैं।
जिन्हे राम के होने पे भी शक है वो रावण कि फ़ौज में बावन गज़ के क्यों हो जाते हैं।।
15. तू खंजर से शहर के जख्म कुरेद अपना वज्रस्व बनाने कि जुगत में रहता है।
मैं लिए मलहम अपना फर्ज अदा करता हूँ।।
16. कुत्ते सी ले जीभ,लिए सियार सी नीयत शहर में आया है तू।
ध्यान रहे मर्दो का शहर है,बात जब शेर की करना लहज़ा शेर सा रखना।।
17. एक अजीब सा दर्द लिए शहर सिसकता रहा।
बहरूपिया नए नए चहरे लगा के,आबरू लूट के इसकी क्रन्तिकारी बनता रहा।।
18. शहर जबसे रास्तों कि जगह मंज़िल से पहचान करने लगा।
गद्दारे वतन गद्दारी को क्रांति का लिबास पहनाने का खेल गढ़ने लगा।।
19. जो कहते थे हम है दूसरों से अलग उन्हें औरों से ज्यादा गिरा हुआ पाया।
सियासत कि मंडी में सजते ही इनके खून का असली रंग नज़र आया।।
20. सियारों का ले हुजूम शेर से नहीं मिला जाता।
राष्ट्रवंदना में देनी पड़ती है ज़िंदगी,सियासत में चमकने को मुजरा नहीं किया जाता।।
धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी
इतनी बड़ी और असहज चीजों को आप शब्दों में कैसे पिरोते हैं? बहुत बढ़िया, सब रोज मर्रा की चीजें हैं जिन्हें आपने शब्दों से अलंकृत कर हमारे सामने रखा है.
ReplyDeleteheart Touching... Bahut umdaa
ReplyDeleteआपके सुंदर शब्दों के अन्दर छुपी क्रन्तिकारी भावना मन को गहराई तक छुआ ! क्या कहूँ अपने भावना को शब्दों में पिरोना नहीं आता ...शब्द उम्र घुमर रहा है ...बस इतना ही कह सकता हूँ !
ReplyDeleteअदद शेर ....चुस्त एवं फुर्तीला ....हर दिल अजीज ....बांकी आप पूरा कर दीजियेगा !