Saturday, June 29, 2013

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग चार (IV)}



कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग चार (IV)}  
  (अरुण कुमार तिवारी)


1. ये घर है मेरा इसकी बुनियाद में,जस्बये वतन रहता है।
   अब सर झुका के नहीं चलता है इस देश का मुस्तकबिल ,जब चलता है तो सर पे कफ़न रहता है।।

2. खुदा खड़ा था गली के मोड़ पे।

    लोग उससे मस्जिद का पता पूंछ-पूंछ के जाते रहे ।।

3. तेरे जस्बात उस गली तक भी नहीं पहुंचे।

    मेरे हालात जिस गली से, मीलों दूर चले आये हैं।।

4. मज्जिद में गये थे पाक़ होने के लिए।

    ऐसा क्या था नमाज़ में जो भी निकला कातिल बन के निकला।।

5. कैसे हालात हो गए हैं,नया ज़ख्म पुराने को दबा देता है।

    अजीब सियासत है कोई भी आये,सिर्फ दगा देता है।।

6.मेरा काम तुझे सच दिखने का था और रहेगा।

   मै आइना हूँ सच दिखाता हूँ तस्वीर बनाना मेरा काम नहीं।।

7. ज़िन्दगी निकले तो कहीं से भी निकले।

    रूह जब निकले तो जिगर से निकले।।

8. कभी हालात ने रुला दिया कभी जज़्बात ने रुला दिया।

    महफ़िल में जब भी ज़िक्र तेरा हुआ,हमें हर बात ने रुला दिया।। 

9. कुछ तो खास बात है उसकी अंगड़ाई में।

    वो जब भी अंगड़ाई लेता है उस रात शहर नहीं सोता है।।

10. उसके हांथों का कश्कुल न देख।

      न जाने कितने ताजों को वो ठोकर मार कर आया है।।

11. बीस दिन के प्यार के लिए,बीस सालों का दुलार भूल जाते हैं।

       ऐसे लोग अंधेरों में फिर दीप नहीं जलाते हैं।।

12. बिछड़ने से पहले चलो, बाँट लेते हैं कुछ न कुछ।

      तुम मेरे हिस्से की खुशियाँ ले जाओ,मै तुम्हारे हिस्से के ग़म लिए जाता हूँ।।

13. मेरे घर की बुनियाद अभी बहुत मजबूत है।

      मेरे माँ बाप अभी इस घर में रहते है।।

14. कुछ खुशनसीब थे तू जिनके अन्दर रहता था।

      कुछ बदनसीब थे जिन्हें तू खोज रहा था।।

15. तेरी रहमत से बहुत वाकिफ हूँ मैं।

      तू अक्सर प्यासे को समुन्दर के पास छोड़ देता है।।

16. तू सीख रहा है जिससे उड़ने का हुनर।

      वो परिंदा खुद पिंजरे से बाहर आज तक नहीं निकला है।।

17. दूर जाके भी न तू भूला जिसको।

      वो तुझे आज भी याद करता है,तेरे जाने के बाद।।

18. पता न पूँछ मुझ से किसी और का।

      बरसो से भटक रहा हूँ मैं खुद की तलाश में।।

19. इस दुनिया में यारों इतना गिरना भी अच्छा नहीं होता।

      के जब उठने का वक्त आये तो खुद से आँख न मिला सको।। 

20. कितना अजीब सक्श था वो सर पे ताज था फिर भी।

      हर लाचार के आगे सर झुकाता चला गया,हर किसी को अपना बनाता चला गया।।

21. मैं उस मंजिल का राही हूँ,जो मंजिल तेरी भी है मेरी भी है।

      थाम ले हाँथ मेरा,न डिगने दे मुझको,जरूरत तेरी भी है जरूरत मेरी भी है।।


धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी 

Thursday, June 13, 2013

Monday, June 10, 2013

लंका काण्ड भगवान राम का विभीषण को उपदेश।

जय श्री राम

लंका काण्ड भगवान राम का विभीषण को उपदेश।




दुहु दिसि जय जयकार करि निज जोरी जानि।
     भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥

दोनों ओर के योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर श्री रघुनाथजी का और उधर रावण का बखान करके परस्पर भिड़ गए॥

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥

रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे

नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥2॥
हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान्‌ वीर रावण
किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है ॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥

ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि)
यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥

हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥

प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्‌) उपदेश दिया॥

Ravan came riding on a rath (chariot), well protected by armour, and equipped with sophisticated weapons. Sri Rama did not have a chariot, or armour or sophisticated weapon, except his bow and arrows.Looking at this contrast Vibheeshan was concerned about the safety and even doubted victory of Sri Rama as he knew how strong his brother Ravana was. Out of compassion and affection he expressed his feelings thus to Sri Ram, “O Lord, you neither have a chariot nor any protection gear in the form of armour to protect your body or footwear to protect your feet. How then are you going to win over mighty Ravan?”

Hearing to the plea of Vibheeshan, Sri Ram gives an enlightening sermon. This is very nicely put in Sri Ramacharitmanas by Goswami Tulasidas Ji. Sri Ram says “My beloved friend listen, the chariot which brings victory to a warrior is totally different. The Chariot of Dharma (righteousness). The two wheels of that chariot are valour (Saurya) and fortitude (Dhirya). The flag of that chariot is steadfastness (Sitaprajnattva) and good character (Suseela) is the flag post for it.

The horses tied to that chariot are strength (Bala), discrimination (Viveka), self-control (Dama) and caring for others (Parahita). The reins are made of the ropes of forgiveness (Kshama), compassion (Kripa) and equanimity (Samattva). Faith in Absolute is the charioteer for the chariot. Dispassion (Virakti) is the shield and contentment (Tripti) is the sword, intellect (Buddhi) is the string to the bow and knowledge of the Self (Atma Jnana) is the relentless bow. A pure and steady mind is a quiver which holds the bunch of arrows got from abstinence (Yama) and religious observances (Niyama). Respect to intellectuals and Guru is impenetrable armour.

Concluding the talk, Sri Ram says “Listen, O friend of resolute mind, a person who is in possession of such a powerful chariot of Dharma is the real hero; he can conquer the mightiest and invincible enemy in the form of attachment to the world. There is no other enemy as bigger than that and no equipment for victory is effective as this.  My friend, he who owns such a chariot in fact does not have enemies to conquer hence is a winner always.”

On hearing these words of wisdom Vibheeshana held onto the lotus feet of Sri Rama with joy and said “My lord, you are personification of grace and bliss, through the metaphor of Dharma Ratha (Chariot of Dharma) you have given me valuable instructions and guide lines to lead a life of harmony.”


जय श्री राम