Saturday, January 25, 2014

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग षोडश (XVI)}


कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग षोडश (XVI)}





21. उम्र भर चलना रही आदत मेरी,मंज़िल पे ठहरने का हुनर नहीं आता है।
      मुसाफिर हूँ मै भी मुसाफिर है तू भी मिलेंगे फिर किसी मोड़ पर मिलेंगे फिर किसी राह में।।

1 . पहले चुका दो मोल शहीदों कि क़ुरबानी का।
     फिर बताना दाम अपनी जवानी का।।

2 . ताज़ भी बता देते हैं,पहचान सच्चे सरों कि यार।
     तेरे ताज़ में हाँथ कि लकीरें,उसके ताज़ में पैर कि बवाईआं हैं यार।।

3 . दशहरी लंगड़ा चौसा सफ़ेदा ढूंढ रहा हूँ इन में आजकल।
     जबसे "बेआम" आम होगये,शहर में आम नज़र नहीं आते।।

4 . या तो अश्के मुहब्बत है या तो मुश्के मोहब्बत है।
     कोई कहता था शहर में मोहब्बत ही मोहब्बत है।।

5 . कोई ठुकराके रोया कोई अपना के रोया।
     दीवारे मोहब्ब्त है,जो भी रोया बहुत देर तक रोया।।

6 . खुदा ढूंढ रहा था रुकने का ठिकाना।
     जब मिला तो काफिर के दिल में मिला रुकने का ठिकाना।।

7 . सांप को दूध पिलाना,बहुत देख भाल के।
     ये गलती शहरे हिन्दुस्ता कर के समझा है।।

8 . देखता है दूसरों कि बारीक गल्तिआं बहुत गौर से।
     ये बात और है,देखता है चोरी के चस्मे से।।

9 . ज़िंदगी को ही सिखाना था,ज़िंदगी ने सिखा दिया अपने पराये का सलीका।
      सबका एहतराम तो करता हूँ सबपे ऐतबार नहीं करता।।

10. आ रही है ख़ुशबू वतन कि उसके नाम के ही ज़िक्र से।
      सामने होगा जब,लिपट के उसके ही हो जाओगे।।

11. जब सर पे था मेरे तो कोई भी नहीं था साथ।
      साये भी निकलते हैं रुख सूरज का देख के।।

12. कितने भी बदल जाओ तुम,यहाँ बना लो कोई नया रिश्ता,मगर।
      इस शहर के वही फलसफे पुराने हैं,वही किस्से पुराने हैं।।

13. ये शहर चुप रहने कि अक्सर सज़ा पाता है।
      कभी कातिल कभी हुक्मरां के हांथों मौत पाता है।।

14. बारिश नक़ाब तो पुरवाई पुरानी चोट उभार रही है यहाँ।
      इस शहरे दिल्ली में तमाशे और तमाशेबाज बहुत आ गए हैं यारों।।

15. अजीब बेशर्म हुक्मरान है यार तू जब भी शहर को ज़रुरत होती है तेरी।
      तू शहर कि सांस रोकने सड़कों पे बैठ जाता है।।

16. शहर ने झुकने की आदत डाल ली जबसे।
      शौख नवाबों के पाल लिए हुक्मरानो ने।।

17. उसका रास्ता होता है,लोगों के चलने के लिए।
      तेरा रास्ता एक दिन तुझको ही मिटा देगा पगले।।

18. लोग परेशां थे दिखाने को उसे नए नए रास्ते।
      और एक वो था जो अपनी धुन में मस्त बना रहा था अपना ही रास्ता।।

19. बचपन भी अजीब होता है,फेंक के सोने कि गिन्नी।
      दिन भर मट्टी के खिलोने से लड़ता रहता है।।

20. शेर कुछ पिछले भी बहुत अच्छे थे ।
      अब समझ में नही आए ये और बात है।।

धन्यवाद,

अरुण कुमार तिवारी 

Thursday, January 9, 2014

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग पंचदशं (XV)}



कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग पंचदशं (XV)}





२१. अजीब शहर है ये घूमते हैं शरीफ सारे उतारे कपडे।
     और एक मजबूर तवायफ है जिसके सर से कभी दुपटटा नहीं हटता।।

१ . ये बात और है सियासतदां के तुझको खबर नहीं।
     वरना इस शहर में आंसू भी बहुत हैं,आहें भी बहुत हैं।।

२ . जब भी लड़ो घर में सब्ज़ी में मसाले "कम है" की खातिर,ध्यान रहे ।
      कहीं एक माँ भी होगी जो नमक-रोटी से बच्चा पालती होगी।।

३ . फिर आस्तीन उठा कर,मुश्क दिखाने की आदत चली गई।
      आँखों में लाली लिए रात भर जागने की,मजबूर माँ को इंटे उठाते देखा था।।  

४ . जुड़ेगा जब भी नाम मेरा तेरे नाम से।
      शहर में कोई तो बदनाम हो जायेगा।। 

५ . दावा है सर्द हवाएं छूके तुझ को गर्माहट दे देंगी।
      लाचार बूढ़े गरीब को अपनी चादर उढ़ा के तो देखो।। 

६ . जब भी बंद होने लगती हैं, उसके दिल कि धड़कन।
     कंधे पे बैठी मजबूरी,बूढ़े बाप का जिस्म चला देतीं हैं।।

७ . मत ढूंड इस शहर में अपने जीने कि वजह।
      बस इतना जान लो तुम भी हो इस शहर के जीने कि वजह।।  

८ . टुकड़ों में बंट चुकी है ज़िंदगी,टुकड़ों में कट रही है ज़िंदगी।
     वक्त कुछ ऐसी करवट बदल चूका है,टुकड़ो में ज़िंदा है टुकड़ो ही में मर रही है ज़िंदगी।। 

९ . दुम दबाये कुत्ते बहुत भौंकने लगे हैं इन दिनों।
     लगता है शेर ने दस्तक दे दी है शहर में।। 

१०. तुम्हारे बदलाव को आधार स्वप्न का है,मेरे बदलाव को आधार सत्य का है।
      तुम्हारे स्वप्न में व्यक्तिविशेष मेरे वजूद में देश रहता है।।

११. जिस की बुनियाद में ही हो अँधेरा मिटाने की आदत। 
     अँधेरा कितना भी गहरा हो उसे मिटा नहि सकता।।

१२. कोई मोहरे कि तलाश में था,किसीको थी मोहरा बनने कि जुस्तज़ू।
      दोनों सियासत कर रहे है अपनी अपनी,शहर खेल के मैदान सा लगने लगा है अब तो।।

१३. आदत हो गई है थूकने कि आसमान पे इनकी।
      ग़ुरूर इतना अपनी जगह से हटते भी नहीं।।

१४. इस धूम को ढोल ताशे लिए हुज़ूम को बारात न समझो।
      ये हिंदुस्तान है,मैय्यतें भी अक्सर सजाके निकाली जातीं देखि हैं हमने।।

१५. झूठा हूँ तो तुम ही समझा दो मुझको।
      मैंने झूठा कहा था क्यूंकि,याद थी कुछ कस्मे कुछ वादे तेरे।।

१६. पहले ही तय कर चुके हैं भागने कि गली सब।
     गीदड़ जितने इकठ्ठा हो रहे हैं,करने शिकार शेर का।।

१७. जब भी खोदी जाएँगी,मीनारे गुलामी की हिंदुस्तान में।
     लुटी कुछ लाज मिलेगी,कटे कुछ राम के टुकड़े मिलेंगे।।

१८. तीर बन तलवार बन और कभी तू ढाल बन। 
     युद्ध है ये धर्म का बन के आहूति हर बार जल।।

१९. इस धर्मक्षेत्र में कुरुक्षेत्र में जायज़ हैं सब वार।
    उठो धरा के वीर सपूतों,चूनो प्रतिध्वंधि चुन लो अपने हथियार,विजय निश्चित हो इस बार।।

२०. मोमिन है तभी तो परेशां है देख के बस एक ही गली।
     मेरे राम ने बताया था हर रास्ता उस तक ही जाता है।। 


धन्यवाद,

अरुण कुमार तिवारी 

Wednesday, January 1, 2014

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग चतुर्दस (XIV)}



कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग चतुर्दस (XIV)}









२१. इलज़ाम जरूर लगाएगा जमाना उसपे बेरुखी का।
      पर कैसे मनाए वो साल नया,जब भूंख ग़ुरबत लाचारी दरवाज़े पे बैठी है उसके आज भी।।

१ .  दीपक समझा रहा था सूरज को, न कर गुमान अपनी रौशनी पर।
     सारी रात लड़ता हूँ अँधेरे में सर्द हवाओं से मैं पथिक के लिए।।

२ . सीखा है मैंने उन से मुश्किलों में चलने का हुनर।
     जब भी आये मुश्किलें बस चलते रहो,चलते रहो,चलते रहो,चलते रहो।।

३ . क्या फायदा होगा आज थाम कर हाथ खुदा का।
     खुदा आज सफ़र पे निकला है थामे नाखुदा का हाथ।। 

४ . फिर तिलमिला के चला गया खुदा मस्ज़िद से न जाने किस तरफ।
      शायद मौलवी पढ़ा रहा था मोमिन को कुरान ये पाक कि आयतें।। 

५ . बाद में सिखाना मुझ इंसानियत का तकाज़ा।
      पहले छोड़ दो उस मेमने को जो तुम्हारी दरांत के नीचे है मोमिनो।।

६ . तू चाह कर भी दर्द उसका नही समझ पाता।
     तू उसके शब्दों में ढूंढ रहा था,वो आँखों से बयां कर रहा था दर्द अपना।। 

७ . कुछ मजबूरीआं होती हैं कुछ फ़साने होते हैं। 
      ज़िंदगी जीने के सबके अपने अपने बहाने होते हैं।।

८ . उसे वास्तव में ही आँसू बहाने का हुनर नहीं आता है।
     दर्द देख कर रो देता है,फ़ायदा देख कर रोना नहीं आता उसको।। 

९ . तेरा मेरा मेल हो तो कैसे हो,भार नाव का कम करने को।
     मैं दरिया में कूदने कि सोच रहा था जब तू खंजर लिए ख्याल कुछ बुन रहा था।। 

१०. शामेगम है ये इतना जान लो यारों।
      ख़तम होगी मेरी रुस्वाई पे या फिर नाम पे उसके।।

११. पहचानने के लिए मुझको न दो अपनी आँखों को ज़ेहमत।
      जज़्बात हूँ मुझको आप अपने दिल से टटोलिये।।

१२. क्या कहा,दिल में उतर गई मेरी बातें।
      जनाब दिलसे कही थी बात,इनका ठिकाना भला और कहाँ होता।।

१३. मुझ को अपना चूका था वो मेरी हर कमी के साथ।
      मैं ढूंढ रहा था जब अपने अंदर कि कुछ अच्छाइयां उससे बताने को।।

१४. चमक बढ़ जायेगी,धार और भी निखर आएगी तलवार पर। 
      किसी मजबूर कि मदत के वास्ते शिददत से उठाकर देखो।।

१५. बिकने ही तो आया था वो सियासत के बाजाऱ में।
      कीमत सिक्को ने तय करनी थी,सिक्कों ने ही तय कर दी उसकी बोली।।

१६. लेकर हुजूम,दिखाकर कीचड वो "आम" से खास हो गया।
     बाहर निकलो सरफिरों तुम्हे कीचड मिटाना है,हौंसलों का उसमे कमल खिलाना है।।

१७. उसको आती है आईआरी झूठ के महल बनाने कि।
       हमने सीख लिया हुनर किलों को ढहाने का।।

१८. खरीदने बेचने का हुनर उसको खूब आता है।
      बेच कर फकीरी अपनी वो सिंघासन खरीद लाया है।।

१९. कह रहा हूँ सुन लो ध्यान से,या तो हिन्दू हो जाओ या फिर जाओ खुदा कि पनाह में।
      ये "बीच वालों" सा रवैया जंग में अच्छा नहीं होता।।

२०. खुश हो जा तू गिन के हाँथ,जो तालियां बजा रहे हैं ताजपोशी पे तेरी।
      मैं उन सरों कि तलाश में हूँ जो कटने को तैयार हैं अपने इस वतन के लिए।।

धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी