Tuesday, December 17, 2013

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग त्रयो दश(XIII)}


कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग त्रयो दश(XIII)}




21. वो गुम्बदों मीनारों में खोज रहा था शहर कि पहचान।
      मैं वो धागा तलाश रहा था जिसने ये शहर बाँध रखा है।। 

1 . पेंड दुआ मांग रहा था,कुछ टहनिओं के सूख जाने कि।
     जब सर्दी में एक लाचार माँ फटी साडी से बच्चा ढांक रही थी।।

2 . ये शहर भी अजीब है यारों,कुछ अजीब ही ढंग है इसके ।
     सच को चुप रहने कि आदत है, झूट चिल्ला के अपना पता बताता है।।

3 . तेरा ये शहर फिर कैंचिआं हाँथ में लिए अफ़सोस करेगा।
     हमने परों को छोड़ हौसलों से उड़ना सीख लिया है।। 

4 . वो बार बार पूँछ रहा था ज़िंदगी का ठिकाना।
     मैंने शमशान कि ओर जाने का रास्ता दिखा दिया।।

5 . यूँ तो इतिहास खुद को दोहराता है।
     समझदार वो जो इतिहास कि गलतियां नहीं दोहराता है।।

6 . मैं तेरे वतन का हूँ,तुझ सा नहीं हूँ मैं।
     तेरे वतन कि जमीं मुझे आज भी बेटा ही कहती है।।

7 . पंछी भी पहचानते हैं छत्त शिकारी की ।
     सियासतदानों कि छत पे भूँखा कबूतर अब नहीं जाता।। 

8 . लगा दे शहर के बाकि बचे सब इलज़ाम भी मेरे माथे पर।
     बस इस शहर की मासूमियत को और न बदनाम कर।।

9 . मैं लड़ रहा था जहाँ से के तू मुझ में बसा है।
     तू लड़ रहा था जहाँ से के तू मेरे आस पास है।।

10. जवानी गुम हुई जाती है खुद कि मसतिओं में।
      बुढापा फिर मशाले रौशनी लिए तख्ते फांसी चूमने चला है।।

11. समझौती अब इतने भी नहीं करता।
      कि आईना देखूं तो खुद को भी पहचान न सकूँ।।

12. आज जो लगा रहे हो मेरे सर कि कीमत,कल जब झुकाओगे।
      अपना सर मेरे क़दमों पे,गले लगाऊंगा सर तुम्हारा झुकने नहीं दूंगा ऐ दोस्त।।

13. बस गया है बगावती खून उसकी नस नस में। 
      जब झूठ नही मिलता सच से बगावत कर लेता है वो यारों।।

14. सच लिख लिख के थक जाता हूँ,पर सत्य व्यर्थ नहीं जायेगा।
      ये बात और है किताबे झूठ के खरीदार शहर में ज्यादा हैं।।

15. मैं लिख लिख के बागी हो गया,वो पढ़ पढ़ के कायर हो गया।
      या तो मैं दास्तान नहीं लिख पाया,या फिर वो आज भी अफसानों में जीता है।।

16. कच्ची मिटटी से बनाते है शहीदों कि मज़ारे सियासतदां।
      आसान होता है गिरा के उसको रास्ता बनाके दुस्मनों कि बाँहों में जाने का।।

17. सच बेचना है तो मैखाने में आजा पगले।
      मस्जिद में तो आजकल खुदा बिकता है।।

18. मीर बाक़ी को लिए अपने ज़ेहन में। 
      घूमते देखें हैं हमने मीर ज़ाफ़र सियासत के शहर में।।

19. वो तोड़ रहा था मंदिर,मस्ज़िद बनाने के वास्ते।
      हरकते देख कर उसकी,खुदा रो पड़ा राम के चरणो में बैठ कर।।

20. क्यूँ न हो हुक्मरानों को सर कलम करने कि आदत। 
      शहर जब उन से मिलता है,झुका के गर्दन ही मिलता है।।

धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी 

Wednesday, December 4, 2013

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग द्वादश(XII)}

कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग द्वादश(XII)}






21. थक जाती हैं लिख लिख के सच्चाई उँगलियाँ मेरी।
      फाड़ के इतने कागज़, हाथ उसका भी तो दुखता होगा यारों ।।

1  . जिस दिन मुझसे प्यार करोगे,उस दिन मुझसे हो जाओगे।
      आदत काटों कि फिर पड़ जायेगी,फिर काँटों पर ही सो जाओगे।।

2  . रात तुझको दुआ देते गुज़ार देता है। 
      तू जिसको दिनभर बद दुआ देता है नाशुक्रे।।

3  . इतना जान ले नाशुक्रे परदेशी,दीवार पे नन्हे हांथों से जो लकीर तूने कभी खींची थी।
      बूढ़े माँ बाप उसीके सहारे ज़िंदगी काट रहे हैं।।

4  .  ये उसके किरदार कि ही सच्चाई का नतीज़ा था। 
       दरवाज़े को उसके लोगों ने दर बना डाला।।

5  . बीच मझधार में,पतवार नहीं है तो न सही।
      निसछल विस्वास से भी नैया पार लगते हमने देखी है।।

6  . बनते गए रिश्ते,बिगड़ते गए रिश्ते।
      वक्त का सब खेल है,
      सोच छोटी हुई छोटे दायरे में सिमटते गए रिश्ते।।

7  . कोई समझाओ इस एहसान फरामोश को।
      अपनी पे आ जायें तो रुख आंधिओं का भी मोड़ देते हैं हमलोग।।

8  . अगर तुम्हारी बात को आधार है सत्य का,तो फांसी लगा दो मुझको।
      यूँ इलज़ाम लगाना और भाग जाना नहीं होता अच्छा।।

9  . सिर्फ सर पे ताज देख कर सर झुकाने वालों।
      बेताज ही अक्सर होते हैं दुनिया के रहनुमा ज़माने में।। 

10. आँख कि शर्म बहुत ज़रूरी है इस शहर में यारों।
      ये शहरे हिन्दोस्तान है,जबां से कभी कभी,नज़रों से अक्सर आदाब पढता है।।

11. बदमाशों-गुनहगारों के नाम "शरीफ़" होने लगे। 
      जनाज़ा-ए शराफत धूम से निकालने कि तैयारी है यारों।।

12. सिहरन तो होनी ही थी उसकी बातों से।
      वो सच बोलता है आँखों में आँखे डाल के।।

13. रुख हवाओं का बता देती है पहली पुरवाई ही।
      फसल किसान बहुत सोच समझ के बोता है।।

14. बिन परों के मासूम परिंदे निकले हैं सफ़र पे।
      लोमडिओं से इस शहर को आज बचा लो यारों।।

15. जानता हूँ बाज़ार सियासत का बहुत जल्द गरम होगा।
      आम चीज़े "आप" कुछ खास दामों पे बेचते नज़र आयेंगे।।

16. आम अब खास हो रहे हैं,ये सियासत है दोस्तों।
      रंजिस नहीं ये दिल का दर्द है,संभल के ऐतबार करना यारों।।

17. सारी आदकारियां करता है वो हुक्मरानो कि।
      और फ़कीर होने का दावा भी करता है।।

18. अब तो बंद कर यहाँ आना मौलवी,मेरा सब्र्र अब जाता है।
      तू जब भी मस्ज़िद मे आता है खुदा न जाने कहाँ चला जाता है।।

19. बचा के लाया हूँ खुदा को मौलवी के हांथों से मस्ज़िद से।
      अब मैं काफिर हूँ या खुदा है काफिर फैसला नमाज़ी को करने दो यारों।।

20. मैं काफिर हूँ ,खुदा मुझ से सीधे बात करता है।
      कल बता रहा था वो मुझको,ऐ नमाज़ी वो तुझसे बहुत डरता है।।



धन्यवाद,
अरुण कुमार तिवारी