Monday, June 1, 2015






कुछ मुक्तक कुछ शेर {भाग द्वाविंशतिः (XXII)}




३१. शाख से टूटने की सज़ा कुछ ऐसे पाते हैं।
      फिर हवा के अहसान पे हो जाते है, जिस ओर भी ले जाये चले जाते हैं।।

१ . किस किस की ज़िंदगी का सफर किया था मैंने।
     हिसाब करने जो बैठा तो मर गया यारों।।

२ . अजीब नब्ज़ है,शिददत से जो दबाई।
     सारे कातिल क़त्ल हो गए।।

३ . इतिहास पूरा का पूरा पढ़ाइये या एक किताब कम कर दो बस्ते से।
      नीव कमज़ोर करके आशा बड़ी ईमारत की न रखना बच्चे से।।

४ . भाषा , वाक् और वाणी।
      शब्दों की बस यही कहानी।।

५ . दोनों बहुत देर तलक नही रह पाएंगे एक ही घर में।
      उम्मीद रखनी हो तो आँखों से हटा दो आंसू।।

६ . वो कहानी जिसमे कोई कहानी न थी।
       सुनते सुनते बच्चे के सोने के बाद पता चला, उससे अच्छी तो कोई कहानी न थी।।

७ . सूरज उगा नहीं तो कोई बात नहीं,जुगनुओं और तेज़ जलो।
       रात आ गई है शहर में,ध्यान रहे अँधियारा न जीतने पाये।।

८ . मैं दोस्तों की खैरियत जानने फिर बाहर आ गया।
       कई रोज़ से एक भी पत्थर मेरे घर पे नहीं आया।।

९ . हाँथ जोड़े पागल खड़ा था,पत्थर लिए थे लोग सब।
       कौन पागल है शहर में,समझने लगा हूँ यार अब।।

१०. बहुत देर तक नहीं चलती हैं आइयारियां यारों।
        हर तमाशे का कभी न कभी अंत होता है।।

११. बुढ़िया के कांपते हांथो ने डाले थे मेरे थैले में दिए।
        मै मोल भाव करता तो भगवान को मुह दिखाता कैसे।।

१२. हर बार नाम न दे मजबूरी का गुनहगारी को।
       वो खुद्दार लोग भी थे जो फांको से मर गए।।

१३. सांसे इस लिए नहीं चलती,की ज़िंदा हूँ मैं।
       सच तो ये है,आज भी दिल में कहीं ज़िंदा है तू.।।

१४. भरम इंसानियत का कुछ रख लेता नाशुक्रे।
      लिहाज़ रिश्तों का नहीं रखता तो न रखता,शर्म आँख की रख लेता नाशुक्रे।।

१५. कोई पास नहीं था बताने को,के तू कर नही सकता।
       शायद इसीलिए घर का अँधेरा दूर करने को,बच्चा सूरज उठा लाया।।

१६. तल्खियों के बीच,इतना ध्यान में रखना।
      मिलेंगे फिर किसी न किसी मोड़पे,लहज़ा ज़बान का हया आँखों की बचाये रखना।।

१७. ये अपने अपने समझने का ही अंतर है मौलवी।
      वरना काफिर मै भी हूँ बस उतना जितना तू खुदा है।।

१८. महारत घर सवारने की हासिल करने में लगे हैं लोग।
     बूढी दादी सच कहती है,सलीका घर बचाने का भूलने लगे हैं लोग।।

१९. वक्त के साथ बदल जाते हैं रिश्ते।
      तुम खामखां परेशां हो के चेहरे बदल गए।।

२०. सिर्फ इस लिए की बाज़ुओं में तुम्हारी ज़ोर न रहा।
      दुनिया में तुम्हारी बातों का कोई मोल न रहा।।

२१. ख़ुशी इस बात की नहीं की तू मुझ से हार जायेगा।
      गम सता रहा के कहीं मैं जीत न जाऊं यार।।

२२. तराशते तराशते हीरा बना दिया उसने।
      किसी ने पत्थर मारा था उसे,कोयले की खान से लाके।।

२३. लम्हा लम्हा टूटोगे,कतरा कतरा बंट जाओगे।
      मुझ से जब भी प्यार करोगे,यारा मुझ से हो जाओगे।।

२४. कहीं अभी भी उसमे थोड़ा ज़िंदा हूँ मैं।
       घर जला के मेरा वो मुड़ता ज़रूर है।।

२५. कुछ इस तरह देखा दुआओं का असर।
       गरीब के झोली में झुक के डाले जो दो सिक्के,दोनों दुनिया बदल गई मेरी।।

२६. बहुत टूटा तो समझ में आया।
      सर पे जब सूरज हो तो औकात दिखाता है साया।।

२७. जब बड़ी होने लगती हैं बेटियां उसकी।
       माँ एक साल में न जाने कितने जनम जी लेती है।।

२८. नशे में गंगा जल मय में मिलाया नही जाता।
      घर की रौनक को महफ़िल की ज़ीनत बनाया नहीं जाता।।

२९. तूने दोस्त बनाये थे या दुश्मन ज़िआदा।
      ये बात तय करेगी तेरे जनाज़े पे ख़ामोशी।।

३०. भूंख कैसे देती दस्तक उसकी दहलीज़ पे।
      आखरी दाना वो फ़कीर को कल देके सोया था।।

2 comments:

  1. इस मुक्तक की पहली पंक्ति ज़िन्दगी के एक पहलु को दर्शाती है और मुझे वो पंक्ति बहुत पसंद भी आई है. ज़िन्दगी के सभी रंगों को आप अपने कलम से कागज़ पर बखूबी उतारने की कला जानते हैं. जिसने भी इस मुक्तक को पढ़ा होगा वो पूरा पढ़े बिना नहीं रहा होगा क्यूंकि इसमें हर एक पंक्ति अगली से भिन्न है.

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  2. उम्दा, बहुत उम्दा. अरसा बाद आपकी रचनाएं पढने का मौका मिला. इसी तरह लिखते रहें मेरी शुभकामनाएं.

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